एक बार एक दयालु ब्राह्मण रहता था जो अक्सर
महात्मा बुद्ध और अन्य भिक्षुकों को भोजन की पेशकश करता जब वे लोग भिक्षाटन के दौरान
उनके दरवाजे पर आते थे l एक दिन वे लोग ऐसे समय पर आ पहुँचे जब ब्राह्मण अपना भोजन
कर रहा था l वह अपना आधा भोजन समाप्त कर चुका था परन्तु दरवाजे पर खड़े बुद्ध और
अन्य भिक्षुकों पर उनकी दृष्टि नहीं पड़ी l भिक्षुकों ने दरवाजे के बाहर
धैर्यपूर्वक इंतजार करना मुनासिब समझा l
पत्नी को भिक्षुकों के दरवाजे पर खड़े रहने की
जानकारी थी फिर भी उसने पति को जानकारी नहीं दी , क्योंकि वह जानती थी कि उनका पति
उन भिक्षुकों को आधा बचा हुआ भोजन भी दे देंगे और उन्हें पुनः भोजन बनाना पड़ेगा
जिसके पक्ष में वह बिलकुल भी नहीं थी l
इसलिए, पत्नी घर के दरवाजे की तरफ इस प्रकार से
खडी हो गई ताकि उनके पति की नजर उन भिक्षुकों पर न पड़े l फिर वह आहिस्ता से दरवाजे
की तरफ बढ़ी और बुद्ध से फुसफुसा कर कही – “आज आपके लिए कुछ भी भोजन नहीं बचा है l”
जब पति को पत्नी का व्यव्हार अचंभित लगा तो उसने पूछा कि आखिर बात क्या है l
तब तक बुद्ध और उनके सहयोगी दरवाजे से दूर जा रहे थे l पत्नी जैसे ही पीछे मुड़ी
उनके पति को वे लोग दूर जाते हुए नजर आ गए l पति को तुरंत घटनाक्रम समझ में आ गया
l
वह अपना अधूरा भोजन छोड़कर बुद्ध की तरफ भागा l
वह अपनी पत्नी के रूखे व्यव्हार के लिए माफ़ी माँगा और बुद्ध से वापस लौटकर भोजन
ग्रहण करने की प्रार्थना करने लगा l हालाँकि उनके पास आधे से भी कम भोजन बचा था l
लेकिन भगवान बुद्ध ने बेझिझक उनके निवेदन को स्वीकार किया और कहा – “कोई भी भोजन
मेरे लिए उपयुक्त है , चाहे वह बचे हुए भोजन का अंतिम चम्मच ही क्यों न हो , यही
तो भिक्षुकों का मार्ग है l”
“जो
अपने मन और शरीर को “मैं” और “मेरा” के रूप में नहीं लेता और जो उनकी लालसा नहीं
करता जो उनके पास नहीं है, वास्तव में वही भिक्षुक है l” – महत्मा बुद्ध